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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


नशा मुंशी प्रेम चंद
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सेकंड क्‍लास तो क्‍या, मैंनें कभी इंटर क्‍लास में भी सफर न किया था। अब की सेकंड क्‍लास में सफर का सौभाग्‍य प्राइज़ हुआ। गाडी तो नौ बजे रात को आती थी, पर यात्रा के हर्ष में हम शाम को स्‍टेशन जा पहुंचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ्रेशमेंट-रूम में जाकर हम लोगों ने भेजन किया। मेरी वेश-भूषा और रंग-ढंग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में देर न लगी कि मालिक कौन है और पिछलग्‍गू कौन; लेकिन न जाने क्‍यों मुझे उनकी गुस्‍ताखी बुरी लग रही थी। पैसे ईश्‍वरी की जेब से गए। शायद मेरे पिता को जो वेतन मिलता है, उससे ज्‍यादा इन खानसामों को इनाम-इकराम में मिल जाता हो। एक अठन्‍नी तो चलते समय ईश्‍वरी ही ने दी। ‍फिर भी मैं उन सभों से उसी तत्‍परता और विनय की अपेक्षा करता था, जिससे वे ईश्‍वरी की सेवा कर रहे थे। क्‍यों ईश्‍वरी के हुक्‍म पर सब-के-सब दौडते हैं, लेकिन मैं कोई चीज मांगता हूं, तो उतना उत्‍साह नहीं दिखाते! मुझे भोजन में कुछ स्‍वाद न मिला। यह भेद मेरे ध्‍यान को सम्‍पूर्ण रूप से अपनी ओर खींचे हुए था। गाडी आयी, हम दोनो सवार हुए। खानसामों ने ईश्‍वरी को सलाम किया। मेरी ओर देखा भी नहीं।
ईश्‍वरी ने कहा—कितने तमीजदार हैं ये सब? एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग नहीं।
मैंने खट्टे मन से कहा—इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम दिया करो, तो शायद इनसे ज्‍यादा तमीजदार हो जाएं।
'तो क्‍या तुम समझते हो, यह सब केवल इनाम के लालच से इतना अदब करते हैं।
'जी नहीं, कदापित नहीं! तमीज और अदब तो इनके रक्‍त में मिल गया है।' गाड़ी चली। डाक थी। प्रयास से चली तो प्रतापगढ जाकर रूकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोला। मैं तुरंत चिल्‍ला उठा, दूसरा दरजा है-सेकंड क्‍लास है। उस मुसाफिर ने डिब्‍बे के अन्‍दर आकर मेरी ओर एक विचित्र उपेक्षा की दृष्टि से देखकर कहा—जी हां, सेवक इतना समझता है, और बीच वाले बर्थडे पर बैठ गया। मुझे कितनी लज्‍जा आई, कह नहीं सकता। भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुंचे। स्‍टेशन पर कई आदमी हमारा स्‍वागत करने के लिए खड़े थे। पांच बेगार। बेगारों ने हमारा लगेज उठाया। दोनों भद्र पुरूष पीछे-पीछे चले। एक मुसलमान था रियासत अली, दूसरा ब्राह्मण था रामहरख। दोनों ने मेरी ओर परिचित नेत्रों से देखा, मानो कह रहे हैं, तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे?
रियासत अली ने ईश्‍वरी से पूछा—यह बाबू साहब क्‍या आपके साथ पढ़ते हैं?
ईश्‍वरी ने जवाब दिया—हाँ, साथ पढ़ते भी हैं और साथ रहते भी हैं। यों कहिए कि आप ही की बदौलत मैं इलाहाबाद पड़ा हुआ हूं, नहीं कब का लखनऊ चला आया होता। अब की मैं इन्‍हें घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे, मगर मैंने इनकारी-जवाब दिलवा दिए। आखिरी तार तो अर्जेंट था, जिसकी फीस चार आने प्रति शब्‍द है, पर यहां से उनका भी जवाब इनकारी ही था। दोनों सज्‍जनों ने मेरी ओर चकित नेत्रों से देखा। आतंकित हो जाने की चेष्‍टा करते जान पड़े। रियासत अली ने अर्द्धशंका के स्‍वर में कहा—लेकिन आप बड़े सादे लिबास में रहते हैं।
ईश्‍वरी ने शंका निवारण की—महात्‍मा गांधी के भक्‍त हैं साहब। खद्दर के सिवा कुछ पहने ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डाले। यों कहा कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत है, पर आपकी सूरत देखो तो मालूम होता है, अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं।
रामहरख बोले—अमीरों का ऐसा स्‍वभाव बहुत कम देखने में आता है। कोई भॉंप ही नहीं सकता। रियासत अली ने समर्थन किया—आपने महाराजा चॉँगली को देखा होता तो दॉंतों तले उंगली दबाते। एक गाढ़े की मिर्जई और चमरौंधे जूते पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं, एक बार बेगार में पकड़े गए थे और उन्‍हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया। मैं मन में कटा जा रहा था; पर न जाने क्‍या बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्‍त मुझे हास्‍यास्‍पद न जान पड़ा। उसके प्रत्‍येक वाक्‍य के साथ मानों मैं उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था। मैं शहसवार नहीं हूं। हाँ, लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार हुआ हूं। यहां देखा तो दो कलॉं-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गई। सवार तो हुआ, पर बोटियॉं कॉंप रहीं थीं। मैंने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्‍वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्‍वरी ने घोड़े को तेज न किया, वरना शायद मैं हाथ-पॉँर तुड़वाकर लौटता। संभव है, ईश्‍वरी ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।

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